नई दिल्ली – भारत के आर्थिक ढाँचे में दो नाम सबसे ऊपर आते हैं — भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) और भारतीय स्टेट बैंक (SBI)। एक देश की मौद्रिक नीतियों का निर्माता है, तो दूसरा सबसे बड़ा वाणिज्यिक बैंक। दोनों संस्थाओं की विश्वसनीयता, पारदर्शिता और पेशेवर अनुशासन पूरे बैंकिंग सिस्टम की रीढ़ हैं। ऐसे में जब इन दोनों संस्थानों के बीच “Plagiarism यानी साहित्यिक चोरी” का आरोप-प्रत्यारोप सामने आया, तो यह केवल एक संस्थागत विवाद नहीं बल्कि शोध नैतिकता और डेटा पारदर्शिता पर राष्ट्रीय बहस बन गया।
विवाद की पृष्ठभूमि
RBI के एक अधिकारी सार्थक गुलाटी ने अपने लिंक्डइन पोस्ट में SBI की Ecowrap रिपोर्ट पर आरोप लगाया कि उसमें RBI की मौद्रिक नीति रिपोर्ट से कई चार्ट, विश्लेषण और डेटा हूबहू इस्तेमाल किए गए हैं — बिना किसी स्पष्ट संदर्भ या क्रेडिट के। उनका कहना था कि यह “रिसर्च की साख और संस्थागत ईमानदारी” पर सीधा प्रहार है।
इसके जवाब में SBI के मुख्य अर्थशास्त्री टीम के सदस्य डॉ. तपस परिदा ने कहा कि उनकी रिपोर्ट में केवल सार्वजनिक डेटा का प्रयोग किया गया है, जो MOSPI और RBI जैसी सार्वजनिक संस्थाओं के खुले स्रोत से लिया गया है, और जहां जरूरी था, वहां संदर्भ भी दिया गया है। उनके अनुसार, यह “प्लेजरिज्म नहीं, बल्कि ओपन डेटा के जिम्मेदार उपयोग” का उदाहरण है।
मामले का मूल प्रश्न — ‘प्लेजरिज्म’ की सीमा कहाँ तक?
यह विवाद केवल RBI बनाम SBI नहीं, बल्कि एक गहरे शैक्षणिक और नैतिक प्रश्न की ओर इशारा करता है —
“सार्वजनिक डेटा का उपयोग कब शोध चोरी कहलाता है?”
अगर कोई संस्था खुले स्रोतों से डेटा लेती है, तो उसे किस हद तक नया विश्लेषण करना चाहिए ताकि वह “मौलिक कार्य” कहलाए?
क्या केवल शब्दों या आंकड़ों का दोहराव प्लेजरिज्म है, या विचारों की नकल भी उतनी ही गंभीर गलती मानी जानी चाहिए?
विशेषज्ञों का कहना है कि “उद्धरण (citation) और स्रोत की स्पष्टता” किसी भी शोध कार्य की आत्मा होती है। चाहे डेटा सार्वजनिक हो या निजी, उसका उपयोग करते समय यह बताना आवश्यक है कि वह कहाँ से लिया गया है। अन्यथा, शोध की विश्वसनीयता पर संदेह उठना स्वाभाविक है।
संस्थागत प्रभाव और आर्थिक विश्वसनीयता
RBI और SBI जैसे संस्थानों की रिपोर्टें केवल दस्तावेज नहीं होतीं — वे निवेशकों, नीति-निर्माताओं और अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों के लिए “मार्गदर्शक संकेत” होती हैं। जब इन रिपोर्टों की मौलिकता पर सवाल उठते हैं, तो यह न केवल संस्थाओं की साख को प्रभावित करता है बल्कि भारत के वित्तीय तंत्र की पारदर्शिता पर भी प्रश्न खड़े करता है।
यह विवाद आने वाले समय में वित्तीय रिपोर्टिंग और रिसर्च में एक “Ethical Benchmark” तय कर सकता है, जिससे भविष्य में कोई भी संस्था रिपोर्ट जारी करने से पहले अपने स्रोतों और उद्धरणों की दोहरी जांच करे।
