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Supreme Court of India ने कहा- राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए बिल पर कार्रवाई की समय-सीमा नहीं तय की जा सकती

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New Delhi (Babajinews) – भारत के संवैधानिक ढाँचे में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। इसी संदर्भ में आज सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण राय दी है कि राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर Governor of a State या Draupadi Murmu (राष्ट्रपति) द्वारा उनकी स्वीकृति (असेन्ट) देने, अस्वीकृत करने या राष्ट्रपति के समक्ष भेजने के मामले में कोई संवैधानिक रूप से निर्धारित समय-सीमा नहीं हो सकती।

इस फैसले से यह स्पष्ट हुआ है कि संवैधानिक पदाधिकारी — राज्यपाल या राष्ट्रपति — को विधेयकों पर निर्णय लेने हेतु प्रतिबंधित समय सीमा से नहीं बाँधा गया है, बल्कि उन्हें अपने विवेक तथा संवैधानिक दायित्वों के अनुरूप कार्य करने की संवैधानिक स्वतन्त्रता है।

पृष्ठभूमि

यह मामला उस प्रेसिडेंशियल रेफ़रेंस (राष्ट्रपति द्वारा अदालत से पूछा गया प्रश्न-मंज़ूर) से जुड़ा हुआ है, जिसमें राष्ट्रपति ने अदालत से पूछा था कि क्या न्यायायिक संस्थाएँ राज्यपाल या राष्ट्रपति के निर्णय लेने के संदर्भ में समय-सीमा निर्धारित कर सकती हैं।

मुद्दा इसलिए सामने आया क्योंकि पिछले वर्ष अप्रैल में State of Tamil Nadu v. Governor of Tamil Nadu नाम की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए तीन-महीने की अधिकतम अवधि निर्धारित की थी। (Wikipedia) इसके बाद राष्ट्रपति ने संवैधानिक स्थिति को देखते हुए यह प्रश्न उठाया कि क्या ऐसा ठोस समय-सीमा तय करना न्यायसंगत एवं संवैधानिक है।

संवैधानिक प्रश्न

इस निर्णय की प्रविष्टि में कई महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न शामिल रहे हैं, जैसे:

मुख्य विवेचना

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में यह स्पष्ट किया कि समय-सीमा तय करना संवैधानिक पदाधिकारियों की निर्णय-स्वतंत्रता में हस्तक्षेप हो सकता है। अदालत ने कहा कि यदि न्यायालय द्वारा अनावश्यक रूप से समय-सीमा निर्धारित कर दी जाए, तो यह कार्यपालिका की संवैधानिक भूमिका को प्रभावित कर सकता है।

साथ ही यह भी कहा गया कि निर्णय न लेने की स्थिति में पदाधिकारी को विलंब का कारण बताने का दायित्व बन सकता है — अर्थात्, यह अनिश्चित स्थिति में बिलों को लंबित रखने की अनुमति नहीं देता।

यह फैसला मीडिया रिपोर्टों के अनुसार राज्य-शासन और केंद्र-राज्य संबंधों को प्रभावित कर सकता है, क्योंकि अब यह स्पष्ट है कि राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय देने के लिए सीधे न्यायालय द्वारा ‘समय-सीमा’ नहीं थोपे जाएंगे।

संभावित प्रभाव

इस निर्णय का प्रभाव निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है:

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि उसने संवैधानिक व्यवस्था में निर्णय-प्रक्रिया की गति तथा जिम्मेदारी की चुनौतियों को इंगित किया है। जबकि कोर्ट ने स्पष्ट किया कि समय-सीमा नहीं तय की जा सकती, साथ ही यह माना गया कि निर्णय लेने में देरी संवैधानिक रूप से उचित नहीं है। इस प्रकार, राज्यपाल एवं राष्ट्रपति को विवेक के साथ, सक्रिय व समयबद्ध भूमिका निभानी होगी।

आने वाले समय में यह देखना होगा कि इस राय का प्रभाव राज्यों में कैसे प्रतिबिंबित होगा—क्या यह विधायी प्रक्रिया को अधिक सतर्क और समय-बद्ध बनाएगी, या क्या इससे नए राजनीतिक एवं संवैधानिक मतभेद उभरेंगे।

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