नई दिल्ली — मनोज तिवारी, दिल्ली से सांसद और Bharatiya Janata Party (भाजपा) के प्रतिनिधि, ने घोषणा की है कि वे जल्द ही संसद में एक प्राइवेट मेंबर बिल लाएँगे — जिसमें नाबालिग अपराधियों की आयु सीमा बदलकर 17 वर्ष से घटाकर 14 वर्ष करने का सुझाव है। यह कदम उन जघन्य अपराधों को देखते हुए उठाया गया है जो allegedly वयस्कों की तरह नाबालिगों द्वारा किए जा रहे हैं।
प्रस्ताव का आधार
- वर्तमान में, जघन्य अपराधों के लिए 16–18 वर्ष के किशोरों को वयस्क मानकर सामान्य अदालत में प्रस्तुत करने का प्रावधान है।
- तिवारी का तर्क है कि 15–17 साल के कई किशोर “जबरन या सोचे–समझे अपराधों” में शामिल हो रहे हैं। उन्होंने गुरुग्राम में 17 वर्षीय छात्र द्वारा सहयोगी छात्र की हत्या की एक हालिया घटना का उदाहरण दिया।
- उनका कहना है कि यदि एक नाबालिग 3 हत्याओं के लिए जिम्मेदार हो सकता है, तो उस पर बयस्क की तरह मुकदमा चलना चाहिए।
वाद-विवाद और बहसें
- समर्थकों का कहना है कि अपराध की गंभीरता देखी जानी चाहिए — उम्र नहीं। यदि न्यायिक बोर्ड तय करता है कि अपराध बहुत गंभीर है, तो 14–17 वर्षीय नाबालिग को वयस्क अदालत में लाया जाना चाहिए।
- विपक्ष का तर्क है कि 14 की उम्र में मानसिक विकास पूरी तरह नहीं हुआ होता। पूर्व ही सुनवाई में, Supreme Court of India और अन्य न्यायिक संस्थानों ने यह माना है कि 18 वर्ष तक को “नाबालिग” मानना चाहिए ताकि सुधारात्मक और पुनर्वासात्मक दृष्टिकोण लागू हो सके।
- कई बाल अधिकार संगठन कहते हैं कि वयस्क अदालतों में मुकदमेबाजी से नाबालिगों के पुनर्वास की संभावना घट जाती है — जिससे उन्हें बाद में फिर से अपराध की ओर लौटने की संभावना हो सकती है।
समाज के लिए क्या मतलब?
- यदि यह बिल पास हो जाता है, तो भारत में जघन्य अपराधों के लिए नाबालिगों की जवाबदेही में भारी बदलाव आएगा।
- यह कदम अपराध नियंत्रण की दिशा में एक कड़ा कदम माना जा रहा है — लेकिन साथ ही सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, और कानूनी बहसों को भी जन्म देगा।
- बाल अधिकार, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, समाज की सुरक्षा — तीनों को संतुलित करना इस बदलाव की सबसे बड़ी चुनौती होगी।

