New Delhi – भारत सरकार ने 2 दिसंबर 2025 को एक अहम फैसला लिया है — अब पीएमओ को “सेवा तीर्थ” नाम से जाना जाएगा। यह नाम-परिवर्तन केवल एक नई इमारत का नाम बदलना नहीं है, बल्कि शासन की सोच, उसकी भाषा और नागरिकों के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है।
क्या है बदलाव
- अब पीएमओ परिसर, जिसे पहले “South Block” या “Executive Enclave” आदि नामों से जाना जाता था, उसके नए बनाए गए ब्लॉक (Central Vista पुनर्विकास परियोजना के हिस्से) का नाम “सेवा तीर्थ” रखा गया है।
- साथ ही सिर्फ पीएमओ ही नहीं — देश के विभिन्न अन्य प्रतीक-भवनों के नाम भी बदले गए हैं। उदाहरण के लिए, कई राज्यों के “राजभवन” अब “लोक भवन” कहलाएंगे।
- केंद्र सरकार ने इस बदलाव को “सत्ता से सेवा” की ओर एक प्रतीकात्मक शिफ्ट बताया है — यानी शासन को शक्तिशाली प्रतीक के बजाय जनता की सेवा का माध्यम समझना चाहिए।
क्यों — सिर्फ नाम नहीं, संदेश
इस कदम के पीछे सिर्फ एक नया नाम नहीं है — बल्कि एक बड़ा सामाजिक-राजनीतिक संदेश छिपा हुआ है।
- शासन की मानसिकता बदलना: पुराने नाम अक्सर सत्ता, औपनिवेशिक विरासत, शाही प्रतीकों या अधिकार-आधारित सोच से जुड़े थे। “राज भवन”, “सचिवालय”, “रहडगाह” आदि नाम सत्ता के उन पैमानों की याद दिलाते थे। अब “लोक भवन”, “सेवा तीर्थ” जैसा नाम यह जताता है कि सरकार सत्ता में रहने के लिए नहीं, बल्कि जनता की सेवा के लिए है।
- नागरिक-केंद्रित प्रशासन: नया नाम यह भावना जगाता है कि सरकारी संस्थाएँ आम नागरिकों के लिए हैं — उनकी समस्याओं, उनकी जरूरतों, उनके सुझावों के लिए। सत्ता और जनता के बीच की दूरी कम करने की कोशिश।
- परिवर्तन की शुरुआत: इस बदलाव को कई अन्य नाम-परिवर्तनों के क्रम में देखा जा सकता है — जैसे पहले प्रधानमंत्री आवास का नाम बदलकर “लोक कल्याण मार्ग” किया गया था, “राजपथ” का नाम बदलकर “कर्तव्य पथ” हुआ था। अब यह श्रृंखला पीएमओ तक पहुँची है, जो देश की सबसे ऊँची शक्ति केन्द्र है।
- संकेतात्मक लेकिन प्रभावी: भले ही नाम बदलना मात्र प्रतीक हो, पर प्रतीक शक्तिशाली होते हैं — वे लोगों की सोच, उनकी अपेक्षाओं, उनके विचारों को आकार देते हैं। “सेवा तीर्थ” जैसे नाम के माध्यम से सरकार एक नई पहचान देने की कोशिश कर रही है — “शक्ति के प्रतीक” के बजाय “सेवा का प्रतीक”।
यह बदलाव क्यों मायने रखता है
यह नाम-परिवर्तन सिर्फ दफ्तर या भवन के लिए नहीं है — यह उस राजनीतिक और सामाजिक बदलाव की दिशा में एक संकेत है, जिसमें शासन को “शासन तंत्र” से “जन-तंत्र” में बदलना है।
- इससे नागरिकों को यह प्रेरणा मिलेगी कि शासन उनके लिए है — न कि सिर्फ कुछ विशेष लोगों के लिए।
- यह बदलाव भारत की बदलती राजनीति, बदलती प्रशासन और बदलते लोकतंत्र की चेतना को दर्शाता है।
- भविष्य में, जब नए नाम लोगों की रोजमर्रा की ज़िंदगी में जुड़ जाएँ, तब “सेवा”, “लोक”, “कर्तव्य” जैसे शब्द सिर्फ वादे नहीं रहेंगे — वे व्यवहार बनेंगे।
“सेवा तीर्थ” सिर्फ एक नया नाम नहीं, एक नई सोच है — सत्ता से सेवा की ओर एक प्रतीकात्मक संक्रमण। यह परिवर्तन हमें याद दिलाता है कि हक़, अधिकार और ज़िम्मेदारी के साथ शासन का उद्देश्य जनता की बेहतरी, उनके कल्याण और उनकी आवाज़ को सुनना होना चाहिए।
अगर यह नाम-बदलाव सफल होता है — यानि दफ्तर, नियम, व्यवहार, जवाबदेही — सब कुछ “सेवा” की भावना से जुड़ जाए — तो यह सिर्फ एक नया नाम नहीं, एक नए भारत की शुरुआत होगी।

